अस्थायी व्यादेश या अस्थायी निषेधाज्ञा या वादकालीन निषेधाज्ञा (Temporary injunction)
प्रायः विचारण न्यायालयों में वाद पत्र के साथ अस्थायी निषेधाज्ञाा का आवेदन पत्र प्रस्तुत होता है और इस आवेदन पत्र के निराकरण में वादी पक्ष को अत्यावश्यकता निषेधाज्ञा पाने की होती हैं वहीं प्रतिवादी पक्ष आवेदन पत्र के जवाब और दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए समय की प्रार्थना करते है और कई बार न्यायालय में काफी तनाव पूर्ण स्थिति निर्मित हो जाती हैं। अस्थायी व्यादेश के बारे में आदेश 39 नियम 1 एवं 2 व्यवहार प्रक्रिया संहिता तथा धारा 94 (सी) व्यवहार प्रक्रिया संहिता में तथा एकपक्षीय अस्थायी व्यादेश के संबंध में आदेश 39 नियम 3 एवं 3ए व्यवहार प्रक्रिया संहिता में प्रावधान है तथा आदेश 39 नियम 1 एवं 2 व्यवहार प्रक्रिया संहिता में स्थानीय संशोधन भी ध्यान रखने योग्य हैं। अस्थायी व्यादेश के संबंध में कुछ ऐसी ही प्रायोगिक समस्याओं पर और उनके बारे में आवश्यक वैधानिक स्थिति पर लाला रामकुमार मीणा नें अपने ब्लॉग में चर्चा किया है जिसके कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं को हम यहां पाठकों की सुविधा के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत
किशोर कुमार खेतान विरूद्ध प्रवीण कुमार सिंह, (2006) 3 एस.सी.सी. 312 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि ऐसा आदेश की पक्षकार यथास्थिति बनाये रखने पारित नहीं करना चाहिये जब तक की न्यायालय यह सुनिश्चित न कर ले की स्थिति या स्टेटस क्या हैं।
अशोक कुमार विरूद्ध स्टेट आॅफ हरियाणा (2007) 3 एस.सी.सी. 470 में यह प्रतिपादित किया गया है कि सिमित समय के लिए पारित निषेधाज्ञा का आदेश प्रकरण के निराकरण तक नहीं माना जा सकता मामले में 30.08.1998 को पारित स्थगन आदेश को जवाब दावा प्रस्तुत करने तक बढ़ाया गया था। उसे आगे निरंतर नहीं किया गया बाद में वाद निरस्त हो गया यह प्रतिपादित किया गया कि सिमित समय के लिए व्यादेश दिया गया था वह प्रकरण के निराकरण तक नहीं माना जा सकता।
अस्थायी व्यादेश के सिद्धांत
ए. प्रथम दृष्टया मामला
बी. अपूर्णीय क्षति
सी. सुविधा का संतुलन
लाला रामकुमार मीणा के इस संपूर्ण आलेख का अवलोकन उनके ब्लॉग http://lrmjmeena.blogspot.in में कर सकते हैं।